इच्छाओं का मकड़जाल

इच्छाओं का मकड़जाल

जब से मानवता ने तरक्की की राह पकड़ी है तब से हमारी ये दौड़ बढ़ती ही जा रही है। ये नहीं रुकना चाहती, ये छू लेना चाहती है आसमां की उच्चाइयों को, पा लेना चाहती है वो सब कुछ जो पाया जा सके। वो सारी सुख सुविधाएं जो मिल सके वो भोगना चाहता है। खाने पीने से लेकर नशे तक और शरीर के सुख से लेकर बड़ी महंगी गाड़ियों की चाहत तक, हमारी इन इच्छाओं का कोई अंत नहीं। इस छोटी सी जिंदगी में हम सब कुछ पा लेना चाहते हैं।

 

जब हमारे पूर्वज जंगलों में रहते थे जंगली जानवरों के बीच तब हमारी जरूरत तो सिर्फ इतनी ही थी कि एक ऐसी सुरक्षित जगह हो जो हमें इन जंगली जानवरों से बचा सके, जहां हम पूरी तरह सुरक्षित रह सकें। जंगली जानवर, चिलचिलाती धूप, बारिश का मौसम और कड़ाके की ठंड से इस जगह ने हमारी बहुत रक्षा की, इस जगह को हमने घर का नाम दिया।

 

लेकिन सुरक्षा की इस भावना ने कब दिखावे का रूप ले लिया पता ही नहीं चला। अब बात सुरक्षा की नहीं रही ये अब दिखावे का रूप ले चुकी है। इस दिखावे ने हमें पूरी तरह से अपनी जकड़ में ले लिया है। अब ये सिर्फ घर को बड़ा करने तक सीमित नहीं, हमारी हर बात में सिर्फ दिखावापन झलकता है। अब हम खुद के लिए कम और ज्यादातर दूसरों को दिखाने के लिए किसी भी वस्तु की इच्छा रखते हैं। हम शायद ये दिखाना चाहते हैं कि हम भी किसी से कम नहीं, हम पीछे नहीं छूट गए दिखावेपन के इस दौड़ में, हम भी कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं। हमारा भी एक अस्तित्व है, हमारा भी एक वजूद है।

यहां तक कि हमारी आकांक्षा तो सब से आगे निकल जाने की है, इतना आगे की वहां कोई न हो सिर्फ हम खुद अकेलें हो। सफलता की उस उंचाई पर हम अकेले और बाकी सब पीछे। ये सारी कोशिशों से शायद हम एक छाप छोड़ कर जाना चाहते हैं। एक ऐसी छाप, एक ऐसी मुहर जो हमारे जीते जी और मरने के बाद चीख चीख कर ये बता सके कि हमारा भी एक अस्तित्व है और था।

 

ये कैसी सफलता है, ये कैसी आकांक्षा है जो सिर्फ इस बात पर निर्भर करती है कि आप इस रेस में कहां हो। दूसरों की तुलना में हम अच्छे हैं, दूसरों के पास वो नहीं जो हमारे पास है। अगर दूसरों के पास वो नहीं जो हमारे पास है तो इस बात से हम खुश कैसे हो सकते हैं? दूसरों को दुखी देखकर हम खुश कैसे हो सकते हैं?

 

पर क्या हमने कुछ पल रुक कर इन सारी बातों पर गौर करने की कोशिश की है?

 

क्या हमने ये देखने की कोशिश की है कि इन इच्छाओं ने कभी हमें संतुष्ट किया भी या नहीं?

 

क्या हमें वो खुशी मिली जो इन इच्छाओं के पूरा होने के पहले हम आशा कर रहे थे?

 

अगर मिली तो क्या हमारी दौड़ने की गति थोड़ी सी थमी?
और अगर नहीं तो क्यूं नहीं?

इच्छाओं के इस मकड़जाल से क्या हमें कभी छुटकारा नहीं मिलेगा? क्या हम ऐसे ही भागते रहेंगे हमेशा? क्या हम रुकेंगे नहीं कभी?
क्या कोई ऐसी अवस्था है, क्या कोई ऐसी जगह है जहां हम अपनी इस जिंदगी से पूरी तरह संतुष्ट हो?
एक ऐसी अवस्था जहां ना कुछ पाने की इच्छा हो और ना ही कुछ खोने का डर।

1 Comment

  1. Dharmendra Kumar

    क्या कोई ऐसी अवस्था है, क्या कोई ऐसी जगह है जहां हम अपनी इस जिंदगी से पूरी तरह संतुष्ट हो?
    एक ऐसी अवस्था जहां ना कुछ पाने की इच्छा हो और ना ही कुछ खोने का डर।
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    हाँ, अध्यात्म एक ऐसा अवस्था है जहाँ सब कुछ संतुष्ट हो जाता है। ध्यान और आत्म चिंतन से ये सब संभव है।
    जब हम अंतर्मुखी हो जाते है और तो किसी भी चीज के खोने डर नहीं रह जाता है

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